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दर्द की महफिल में आ के पी / विमल राजस्थानी

छलकते हैं जहाँ इन नरगिसी आँखों के पैमाने
अगर पीना ही है तो दर्द की महफिल में आके पी
यूँ मुर्दा होश के आगोश में जीने के क्या माने
अगर जीना ही है तो जी, सरापा बेखुदी में जी

मुलम्मा लफ्ज का दिल की कशिश पर चढ़ नहीं सकता
गज़ल गालिब की अपनी कह के कोई पढ़ नहीं सकता
यह मत समझो कि महफिल में नहीं है इल्मदाँ कोई
जो ज़र्रा आँख में झोंका, किसी से कढ़ नहीं सकता

बहुत छोटा, बहुत कम अक्ल वह इंसान होता है
बुलंदी दूसरों की देखकर जो आह भरता है
सुखनवर देख कर अपने से बेहतर जो सुलग उठ्ठे
वो हुस्ने-शायरी का पाक दामन चाक करता है

खुले दिल से बहाओ दाद का दरिया, तड़प उठ्ठो
अगर हम उम्र हो तो बाजुओं में भींच लो उसको
जईफी के कदम चूमो, हो औरत, दूर से झूमो
अगर हो उम्र में छोटा, दुआ से सींच दो उसको

है सबको पेट की भट्ठी, सभी ईंधन जुटाते हैं
जमाने की सुलगती गर्दिशों में छटपटाते हैं
मगर जब देख लेते हैं कोई हँसता हँसी चेहरा
खुशी से झूमते हैं, अपने गम को भूल जाते हैं

दिनों में दर्द के, रातों में रब के पास होते हैं
कभी हँसते हैं, मोती की कभी लड़ियाँ पिरोते हैं
बहुत मशहूर होते शायरों के रतजगे यारों !
दिवाला पिट चुका जिनका, वे लम्बी तान सोते हैं