Last modified on 30 नवम्बर 2021, at 23:26

दर्शनों के मेले में / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:26, 30 नवम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश' |अनुवाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मेरे जीवन की बगिया में तुम आये हो ऐसे-
जैसे मरूथल में बसन्त का शुभ आगमन हुआ है ।

खुशियों के पाटल मुस्काने लगे, उल्लसित होकर ,
अंग-अंग में नव उमंग का चंदन महक उठा है ।

श्वास-श्वास है कोकिल-कोकिल मधुरिम राग सजाए,
भौरों का गुजार स्वस्ति मंगल-सा मधुर जगा है ।

महामिलन की मनोकामना है श्रृंगार सजाये,
आस-पास रहते हो लेकिन पास न अभी मिला है।

तोड आवरण सभी एक बस तेरी ही छवि देखूँ ।
अभिलाषा है यही भाव क्यों अब तक नहीं बना है ?

मन मन्दिर को करो प्रकाशित बनकर पावन दीपक,
यहाँ विकारों के तमिश्र का डेरा लगा पडा है ।

तोडों कपट कपाट बन्द जो उर मन्दिर को कराते,
विषय मकड़ियों नें मिल अब तक जाला बहुत बुना है।

तुम असीम हो मैं ससीम हूँ कैसे बाहर निकलूँ ?
सीमाओं में सभी तरह आबद्व विवेक गिरा है।

काले सेल मे धवल ज्योति की भाँति छिपे कण-कण में,
किन्तु दर्शनों के मेले में दर्शन मिल न सका है ।

उद्भव, पालन, प्रलय सभी के कारण ऐ तुम्ही हो,
मैं अज्ञान मूढ़ मन मेरा भव में फँसा रहा है ।

रहा देखते हुए बहुत युग बीत गये हैं प्रियतम !
विरह वेदना से पीडित मन तिल-तिल नित्य जला है ।