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दर ब दर की ठोकरें खाऊँ तुम्हें क्या / सुभाष पाठक 'ज़िया'

दर ब दर की ठोकरें खाऊँ तुम्हें क्या
मैं रहूँ ज़िंदा कि मर जाऊँ तुम्हें क्या

कौन सा तुम मेरा रस्ता देखते हो
लौटकर आऊँ नहीं आऊँ तुम्हें क्या

हर तमन्ना हर ख़ुशी को दफ़्न कर दूं
हर घड़ी मैं ख़ुद को तड़पाऊँ तुम्हें क्या

मैं सितारा हूँ मेरी अपनी चमक है
अब रहूँ रौशन कि बुझ जाऊँ तुम्हें क्या

मैं चराग़ों को जलाऊँ या बुझाऊँ
जैसे भी दिल बहले बहलाऊँ तुम्हें क्या

है 'ज़िया' तस्वीर मेरी रंग मेरे
जैसे चाहूँ रंग बिखराऊँ तुम्हें क्या