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दलित नारी का सौन्दर्य / बाल गंगाधर 'बागी'

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झील सा निर्मल तेरा चितवन, फूलों जैसी काया है
मलय समीर तेरा चंचल मन, क्यों हंसिया हाथ में आया है
सुमन की रंगत फूलों के संग, तेरे रंग पसीने हैं
लट छितराये बिखरी भौंहे, नैनों के रंग पीले हैं

सुखऱ् लबों का रंग है सूखा, वीरां रेगिस्तानों सी
ढूंढ रही विधवा-सी वह, दुनिया रंग बहारों की
चातक जैसा धैर्य है उसका, अभिलाषा की वर्षा का
मिल जाये दो वक्त की रोटी, घर कपड़ा मेरे बच्चों का

मेरे आंसू हिमालय की निकलती, नदियों जैसे हैं
मेरे अहसास भी जलती चिताओं जैसे हैं रोशन
यही है सिलसिला बद से मेरी बदहाल हालत की
ढलती शाम की मानिन्द, बुझती शमां सी रौशन

गेंहू धान सरसों की डांठ1 काटती हूँ
भूंखें पेअ बच्चों संग रात काटती हूँ
धूप ठंडी वर्षा की ध्यान छोड़कर के
कभी बुन के सपनों के तार काटती हूँ

क्यों और कब तक हिसाब लोगे?
कब मुझे इसका जवाब दोगे?
बेबस कर लूटी इज्जत का
कब तक उजड़ा शबाब दोगे?

जब खो जाती पहचान यहाँ
अपनी धरती पर छांव यहाँ
क्या मैं छुआछूत की जननी हूँ?
ये दुनिया मुझे बताओ यहाँ।

हर रोम है जलता सुलग-सुलग
जब लोग निहारें गांव शहर
न मिले इज्जत मर्यादा से
मनुस्मृति की कटुता गाथा से!

दिन रात खटूं मशीनों सी
पेट पीठ की बन छाया
अपशब्द अभद्र व्यवहारों की
अपमानित जाति मेरी काया!

रह-रह कर बादल सपनों का
नयनों की घटा बन जाता है
कभी तन्हाई संग अपनों के
कभी ज्वाला में ढल जाता है