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दलोरी कैंप में / रसक मलिक / नीता पोरवाल

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औरतें अपने पैरों को लम्बा खींचतीं हैं जब उनके
कुपोषित शिशु रोग-संक्रमित स्तनों को चूसते हैं,
जब एक और दिन उनकी आँखों में छिपे डर के साथ शुरू होता है,
जब वे घर पर अपने रिश्तेदारों को याद करती हैं
उनके परिवार हर रात दरवाजे पर इंतज़ार करते हैं,
उनके प्रियजन उन्हें हर दिन ढूँढ़ते हैं,
उनके सपने युद्ध से ध्वस्त हो गये हैं, लालटेन की मद्धम रोशनी की तरह
उनकी क्षीण उम्मीद उन्हें हर रात मृतकों के शवों को खोजने के लिए ले जाती है।

महिलाएँ रोती हैं क्योंकि वे अपने बच्चों को उनके पिता की धूल भरी तस्वीरें थामें देखती हैं,
क्योंकि वे याद करतीं हैं कि हर रात सैनिक उनके साथ बलात्कार करते हैं,
उनके शरीर को जख्मों से भर देने वाले सैनिक, कुछ नहीं मिट सकता।
वे याद करती हैं कि लाशें सड़कों पर पड़ी हैं,
वीरान घरों के पास कचरे की तरह बिखरे और लिपटे शव पड़े हैं।
नये शरणार्थियों से भरे कमरे और विस्थापितों के लिए
कुछ राहत सामग्री से भरे ट्रक देखने के लिए महिलाएँ हर दिन जागती हैं।

महिलाएँ अपने बच्चों को चटाई पर लेटते हुए देखती हैं,
एक और रात शुरू होती है जब लोग अपनी बेटी के खून से लथपथ कपड़े धोने वाली महिला के दुख में,
अपनी पत्नी और बच्चों के खंड-खंड हुए शव को देखकर घर लौटते एक शख़्स की चुप्पी में,
एकांतवास के साथ रहने वाली विधवा के दुख में घर के मायने खोजते हैं,।
जब भी वे दीवारों पर गोलियों के छेद देखने के लिए उठती हैं जब भी उनके प्रियजनों के टुकड़े सड़कों पर पड़े मिलते हैं,
जब भी उन्हें लापता प्रियजनों की चिट्ठियाँ मिलती हैं,
जेल में रिश्तेदारों से पुर्जे मिलते हैं,
मरते हुए माता-पिता से अपने बच्चों को फूल मिलते हैं
तो महिलाएँ घर के मायने खोजती हैं।