दस्तक के किवाड़न प असर होइ के रही,
धनकी समय के आग, लहर होइ के रही।
अलगाव बा लगाव प पत्थर चला रहल,
सीसा के चूर-चूर जिगर होइ के रही।
जब हुश्न बेनकाब जवानी के मोर पर,
अइसे में यार चार नजर होइ के रही।
मन के खिली गुलाब, गंध नेह के उड़ी,
दुनिया में ऊ बिहान सुघर होइ के रही।
कुछ ए तरे बदलाव बा हवा में आ गइल,
‘पीयूष’ अब त गाँव शहर होइ के रही।