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दस्यू / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

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दस्यू ने
कर ली पार
हर लक्ष्मण रेखा
हर सीमा पर
लगे पड़े हैं
अम्बार
मानव मुंडो के ..
पिशाच -नगर
सी हो गई है
हर बस्ती
घर -घर
आंगन- आंगन में
डर रहा - हर कोई ..
अपने ही आंगन
मैं - मेरा
तुम - तुम्हारा
सीमाए -बन चुकी ..
अपनों का तो
नाम कहीं लिखा
नही देखा
नीति -मानवता
संबध -स्नेह के
सब तट सूने ...
पर वैमनस्य के
तटों पर
अम्बार लगे हैं ...
रेत के ढूह
के घर
जो बचपन मैं
बनते -बनते
भविष्य की आशायों का
सिरा पकड़ कर
खड़े रहे थे
आज एक लात में
समय नृशंस
तोड़ गया है ..
लगता है
तट पर सारे
सीपी -शंख
बिगुल -
सागर का जल
छोड़ गया है .......