Last modified on 8 सितम्बर 2011, at 17:17

दस क्षणिकाएं / सजीव सारथी


1.

अंत कहीं नही है,
जो शुरूआत है,
अंत का छोर थामे है,
और जो अंत दिखता है,
वही शुरूआत है,
जीवन एक कविता समान है-
वर्तुल।
2.

नींद के टूटे दर्पण से,
कुछ ख्वाब चटक कर,
बिखर गए थे कभी,
चुभते हैं अब भी आँखों में,
वो कांच के दाने।

3.

कांप रही है शाख,
अभी अभी कोई पंछी उडा होगा,
कांप रहा है एक दर्द सीने में,
किसी ने दुखती रग पर,
हाथ धरा होगा ।
4.

सूरज लाया है एक नयी सुबह,
नयी किरणें जमीं पर उतरी मगर,
वो किरण, जो कल शाम
धरती से उठी थी -
वो किस खला में खो गयी ?
5.

क्या लिखूं ?
अपने सफर की दास्ताँ,
अपने ही दिल की अदालत में,
अपने ही मुक़दमे की,
कैसे करूं पैरवी,
या मुंसिफ बनकर,
कोई फैसला लिखूं
अपने ही नाम...

6.


कब तलक भटकता रहूंगा
इन अंधेरों में मैं,
कब सहर होगी - कुछ पता नही,
शायद कोई शगुन गलत था,
जब सफर शुरू किया था ।
7.

खोखली है बुँलन्दियाँ,
दिखावे की सब रौनक है,
ये वो इमारत है,
जिसकी नींव तले
कई ख्वाब दफ़न हैं।
8.

जन्म और मृत्यु के बीच,
झूल रहा हूँ,
पेंडुलम की तरह
जाने कितनी सदियों से-
कुछ भी याद नही,
सब भूल रहा हूँ
9.

आज भी पत्थर हैं ऑंखें,
आज भी भिंचे हैं हाथ,
आज भी दिन था खोखला,
आज भी बाँझ है रात,
आज भी बांधी थी होश की गिरह,
एक एहद के साथ,
आज भी तोड़ रहा हूँ - एक गुनाह पर।
10.

हथेलियाँ,
मेहंदी की खुश्बू,
जागी सी रातें,
ख्वाबों की खुश्बू,

हथेलियाँ –
उतरे ख्वाबों की,
सच्ची लकीरों की,
लिखी तकदीरों की