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दस दोहे (11 से 20) / चंद्रसिंह बिरकाली

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सोनै सूरज ऊगियो दीठी वादलिळयां ।
मुरधर लेवै वारणा भर-भर आंखड़ियां ।।11।।

आज सोने का सूरज उगा बादलियाँ दिखाई दीं । आँखे भर-भर कर मरूधरा बलैयाँ ले रही है ।

सूरज किरण उंतावळी मिलण धरा सूं आज।
वादलिळयां रोक्यं खड़ी कुण जाणै किण काज ।।12।।

आज धरा से मिलने के लिए सूर्य-किरणें उतावली हो रही है । पर न जानें क्यों बादलियां उन्हें रोके खड़ी है ।

सूरज ढ़कियो बादंला पड़िया पड़द अनेक ।
तड़पै किरणां बापड़ी छिकै न पड़दो एक ।।13।।

बादलियों ने सूरज को ढ़क लिया है, अनेक परदे पड़ गये है। बेचारी किरणें तड़प रही है, पर एक भी परदा दूर नही होता है ।

सूरजमुखी सै सुकिया कंवल रया कमलाय ।
राख्यो सुगणै सुरज नै वादलिळयां बिलमाय ।।14।।

सूर्यमुखी सब सुख गये है और कमल भी कुम्हला रहे है । गुणवान सूर्य को बादलियों ने बहला कर रख लिया है ।

छिनके सूरज निखरियो विखरी वादलिळयां ।
चिलकण मुंह अब लागियो धरा किरण मिळियां ।।15।।

एक क्षण के लिये सूर्य निखरा और बादलियाँ बिखर गई । किरणों से मिलने पर धरा का मुँह अब चमकने लगा है ।

छिण में तावड़ तड़तडैं छिन में ठंडी छांह ।
वादलिळयां भागी फिरै घात पवन गळ बांह ।।16।।

क्षण भर में आतप प्रचंड हो उठती है और दूसरे ही क्षण ठंडी छाया हो जाती है । पवन के गले में बाँह डाले बादलियाँ भागी फिर रही है ।

रंग-बिरंगी बादळी कर-कर मन में चाव ।
सूरज रै मनभावतों चटपट करै बणाव ।।17।।

रंग बिरंगी बादलियाँ मन में चाव कर-कर, सूर्य के मन को लुभाने वाला शृंगार झटपट कर रही हैं ।

पहरै बदळै बादळी, बदळ पहर बदळाय ।
सूरज साजन नै सखी आसी कुणसो दाय ।।18।।

बादली पहनती है, बदलती है और फिर बदल कर फिर पहनती है । जाने सूरज को कौन सा वेष अच्छा लगे ?

सूरज साजन आवसी बैठी पेई खोल ।
बदळ बदळ धण वादलिळयां पहरै बेस अमोल ।।19 ।।

सूरज साजन आएँगे इसलिये वह पेई खोल कर बैठी है । धन्या बादलियाँ बदल-बदल कर अमूल्य वेष पहन रही हैं ।

चुप मत साधे बादळी कहदे सागण बात ।
मैं लखली तेरी कळा सैण सिखायी घात ।।20।।

बादली, चुप्पी मत साधो । सच्ची बात कह दो । मैने तुम्हारी कला पहचान ली है । यह घात साजन की सिखाई हुई है ।