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दस दोहे (61-70) / चंद्रसिंह बिरकाली

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प्रीतम भेजी बादळी, इण में मीन न मेख।
बरसण मिस झुरै खड़ी धण विळवंती देख।। 61।।

इस बादली को प्रियतम ने भेजा है। इसमें मीन-मेख नही है। धन्या को विलाप करते हुए देख कर यह बरसने के मिस रो रही है।

भेट्यां डूंगर खरदरा खररो हुयो सुभाव।
भाजै गाजै गड़गडै तेज दिखावै ताव।। 62।।

ऊबड़-खाबड़ पहाड़ो से संपर्क रखने के कारण बादली का स्वभाव भी कड़ा हो गया है। तभी तो यह दौड़ती है, ‘‘गड़-गड़‘‘ शब्द करके गरजती है तथा तेज ताव दिखाती है।

पड़ड़-पड़ड़ बूंदां पड़ै, गड़ड़-गड़ड़ घण गाज।
कड़ड़-कड़ड़ बीजळ करै, धड़ड़-धड़ड़ धर आज।। 63।।

‘‘ पड़ड़-पड़ड़ ’’ शब्द करती हुई बूंदे पड़ रही है, ‘‘ गड़ड़-गड़ड ‘‘ करते हुए बादल गरज रहे है, ’’ कड़ड़-कड़ड ‘‘ करती हुई बिजलियां चमक रही है और धरा पर आज चारों ओर ’’ धड़ड़-धड़ड ‘‘ की आवाज हो रही है।

परनाळां पानी पड़ै नाळा चळवळिया।
पोखर आस पुरावणा खाळा खळवळिया।। 64।।

छतों के नालों से पड़ता हुआ पानी छोटी नालियों में कूदता हुआ बड़े नालों में मिलकर बहता है और तालाबों की आशा पूरी करता है।

टप-टप चूवै आसरा टप-टप विरही नैण।
झप-झप पळका बीज रा झप-झप हिवड़ो सैण।। 65।।

कमरों की छतें टपक टपक चू रही है और इसी प्रकार विरहिनियों के नयन भी। बिजली का प्रकाश झप-झप कर रहा है और इसी प्रकार साजन का हृदय भी।

छातां पर पाणी पड्यो परनाळां न समायं।
वळ खाता वाळा वगै खाळां जोडां मांय।। 66।।

छतों पर पड़ा हुआ पानी नालियों में नही समा रहा है। बल खाते हुए छोटे नाले बड़े नालों और तालाबों में जा मिलते है

चोवै कच्चा आसरा पड़वै कीच अपार।
ले माटी नर पूगिया छातां पर उण वार।। 67।।

कच्चे मकान चू रहे है और अपार कीचड़ हो रहा है। ऐसे समय में आदमी मिट्टी लेकर छतों पर पहूंचे।

डांड्यां पाणी सूं भरी रूकिया सारा राह।
पंथी एक न नीसरै घण वरसंतै मांह।। 68।।

पगडंडियां पानी से भर गई है और सारे मार्ग रूक गये है। इस जोर की बरसात में एक भी पथिक बाहर नही निकलता है।

चालै पवन अटावरी घिर-घिर बादळ आय।
फुर फटकारा फांक रा जळ ही जळ कर जाय।। 69।।

तेज वायु चल रही है और बादल घिर-घिर कर आ रहे है। जल सहित वायु के झोंके रह-रह कर जल ही जल कर जाते है।

आय फांक उतराध री वूठ्यो तकड़ो मेह।
छातां तालां डैरियां जळ ही जळ दीसेह।। 70।।

उतर दिशा को झोंका आया और घनघोर वर्षा होने लगी। छतों, तालों और डैरों में सर्वत्र जल ही जल दिखाई देने लगा।