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दहके फूल पलाश के / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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आँचल में छुपकर शरमाए,
दहके फूल पलाश के
रोम-रोम के साँस हो गए,
 प्यासे मधुर सुवास के ।

भोर उतर आई माथे पर
बिन्दिया में सिन्दूरी रूप,
तन की सहमी झुकी डाल पर
लिपटी आलिंगन की धूप ।
तैर गए पलकों पर आकर,
          सपने मदिर उजास के।

फूल खिला या अधर पंखुड़ी-
है डूबी नरम गुलाब में
या बसन्त का भीगा यौवन
आँखों से ढली शराब में।
लाज-भरी बाहों में बँधकर,
             झुके नयन संन्यास के।

कोमल कर की एक छुअन
बन गई युग-युग का इतिहास,
इन प्यासी अलकों की छाया
हो गई उलझन का मधुमास।
सुधियों की व्याकुल छाती में,
              अंकुर फूटे आस के।
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