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दहशतों की दास्तां / उर्मिल सत्यभूषण

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कुछ दहशतों की दास्तां
कुछ वहशतों की दास्तां
सुना रही है यह नज़र
बुला रही है यह नज़र
ये जल रहे हैं दो शरर
नश्तर चुभोती है नज़र
लुटा-लुटा सा यह चमन
खुला-खुला यह तन-बदन
आवाज़ है लगा रहा
अस्मत फरोश भेड़िये
उनका शिकार मेमना
सुलग रहा है अनमना
पत्थर का बुत गढ़ा हुआ
जादू से है जकड़ा हुआ
जब एक दिन जग जायेगा
तब आप लेके आयेगा
शामतों की दास्तां
कयामतों की दास्तां।