भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दाँतो की संधियाँ / शिवशंकर मिश्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:57, 22 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिवशंकर मिश्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्या र जो शाम कभी दे गयी,
सुबह दबा ले गयी!

हर एक आँख घूम-नाच रही,
हर एक कंठ भरा चीख से,
खलनायक दिखा रहे मंच से
दृश्यक तवारीख के;
कुर्सियाँ ढीली हैं, गोल,
मंजिल जो मिली, वही--
राह चुरा ले गयी!

जला कभी दीप जो प्रलयी हवाओं में,
गुमसुम में खो गया,
पीड़ाएँ रहीं कभी जिस की धरोहर थीं,
दिल वही रो गया ;
संधियाँ ढँके हुए दाँतों की,
मुश्किल हैं नन्हेद दराँतों की,
और हर बार जली आग जो--
धुँआ उड़ाके गयी!