दाजन दै दुर जीवन कौँ अरु लाजनि दै सजनी कुल वारे ।
साजन दै मन को नव नेम निवाजन दै मनमोहन प्यारे ।
गाजन दै ननदीन गुलाब बिराजन दै उर मे गुन भारे ।
भाजन दै गुरु लोगन कौ पुर बाजन दै अब नेह नगारे ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।