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दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं / सालिम सलीम

दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
सायों के इंतिज़ार में शब भर खड़ा हूँ मैं

क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं

फैला हुआ है सामने सहरा-ए-बे-कनार
आँखों में अपनी ले के समुंदर खड़ा हुआ हूँ मै।

सन्नाटा मेरे चारों तरफ़ है बिछा हुआ
बस दिल की धड़कनों को पकड़ कर खड़ा हूँ मैं

सोया हुआ है मुझ में कोई शख़्स आज रात
लगता है अपने जिस्म से बाहर खड़ा हूँ मैं

इक हाथ में है आईना-ए-ज़ात-ओ-काएनात
इक हाथ में लिए हुए पत्थर खड़ा हूँ मैं