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दाह की कोयल / रामधारी सिंह "दिनकर"

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दाह की कोयल

दाह के आकाश में पर खोल,
कौन तुम बोली पिकी के बोल?


दर्द में भीगी हुई-सी तान,
होश में आता हुआ-सा गान;
याद आई जीस्त की बरसात,
फिर गई दृग में उजेली रात;
काँपता उजली कली का वृन्त,
फिर गया दृग में समग्र बसन्त।
मुँद गईं पलकें, खुले जब कान,
सज गया हरियालियों का ध्यान;
मुँद गईं पलकें कि जागी पीर,
पीर, बिछुडी चिज की तसवीर।
प्राण की सुधि-ग्रन्थि भूली खोल,
कौन तुम बोली पिकी के बोल?


दूर छूटी छाँहवाली डाल,
दूर छूटी तरु-द्रुमों की माल;
दूर छूटा पत्तियों का देश,
तलहटी का दूर रम्य प्रदेश;
कब सुना, जानें न, जल का नाद,
कब मिलीं कलियाँ, नहीं कुछ याद।
ओस-तृण को आज सिर्फ बिसूर
चल रहा मैं बाग-बन से दूर।
शीश पर जलता हुआ दिनमान,
और नीचे तप्त रेगिस्तान।
छाँह-सी मरु-पन्थ में तब डोल
कौन तुम बोली पिकी के बोल?


बालुओं का दाह मेरे ईश!
औ’ गुमरते दर्द की यह टीस!
सोचता विस्मित खड़ा मैं मौन,
खोजती आई मुझे तुम कौन?
कौन तुम, ओ कोमले अनजान?
कौन तुम, किस रोज़ की पहचान?
हाँ, जरा-सी याद भूली बात,
दूध की धोई उजेली रात;
जब किरन-हिंडोर पर सामोद
स्यात्‌, झूली बैठ मेरी गोद।
या कहीं ऊषा-गली में प्रान!
घूमते तुमसे हुई पहचान।
तारकों में या नियति की बात
पढ़ रहा था जब कि पिछली रात,
तुम मिली ओढ़े सुवर्ण-दुकूल
भोर में चुनते विभा के फूल।
भूमि में, नभ में कहीं ओ प्रान!
याद है, तुमसे हुई पहचान।


याद है, तुम तो सुधा की धार,
याद है, तुम चाँदनी सुकुमार।
याद है, तुम तो हृदय की पीर,
याद है, तुम स्वप्न की तसवीर।
याद है, तुम तो कमल की नाल,
मंजरी के पासवाली नर्म कोंपल लाल।
इन्द्र की धनुषी, सजल रंगीन,
खोजती किसको धहकती वायु में उड्डीन?
दाह के आकाश में पर खोल
बोलने आई पिकी के बोल।


चिलचिलाती धूप का यह देश,
कल्पने! कोमल तुम्हारा वेश।
लाल चिनगारी यहाँ की धूल,
एक गुच्छा तुम जुही के फूल
दाह में यह व्याह का संगीत!
भूल क्या सकती न पिछली प्रीत?
पड़ चुका है आग में संसार,
अज तुम असमय पधारी, क्या करूँ सत्कार?
मेरी बावली मेहमान!
शेष जो अब भी उसे निज को समर्पित जान।
लूह आशा हरी सुकुमार,
दाह के आकाश में मन्दाकिनी की धार;
धूप में उड़ती हुई शबनम अरी अनमोल!
कौन तुम बोली पिकी के बोल?

ससराम[शाहाबाद]