http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BC%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%86%E0%A4%A4_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%9C&feed=atom&action=historyदिक्क़त की शुरुआत / कुमार अंबुज - अवतरण इतिहास2024-03-29T05:55:22Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BC%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%86%E0%A4%A4_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%9C&diff=269987&oldid=prevअनिल जनविजय: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार अंबुज |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2019-11-09T15:09:52Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार अंबुज |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार=कुमार अंबुज<br />
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<poem><br />
सोचो तो आख़िर आदमी के जीवन में रखा ही क्या है<br />
वह मुश्किल से रोता-तड़पता जन्म लेता है<br />
फिर रोज़-रोज़ बढ़ती ही जाती हैं उसकी मुश्किलें<br />
उन्हीं सबके बीच वह हंसता-गाता है, लड़ता-झगड़ता है<br />
और होता ही रहता है इस दुनिया से असहमत<br />
<br />
कभी-कभी बीच में दखल देकर वह कह देता है<br />
कि आदमी का जीवन ऐसा नहीं बल्कि ऐसा होना चाहिए<br />
नहीं तो आदमी ज़िन्दा रहते हुए भी मर जाता है<br />
<br />
यह कहते ही वह घिर जाता है चारों तरफ़ से<br />
घिरे हुए आदमी की फिर कभी कम नहीं होतीं मुसीबतें<br />
<br />
आदमी के जीवन में रखा ही क्या है आख़िर<br />
वह मरता तो है ही एक दिन<br />
लेकिन दिक्क़त यहाँ से शुरू होती है कि उसे हमेशा<br />
उस एक दिन से पहले ही मार दिया जाता है यह कह कर<br />
कि आख़िर आदमी के जीवन में रखा ही क्या है—<br />
एक धायँ के अलावा ।<br />
</poem></div>अनिल जनविजय