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दिक्क़त की शुरुआत / कुमार अंबुज

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सोचो तो आख़िर आदमी के जीवन में रखा ही क्या है
वह मुश्किल से रोता-तड़पता जन्म लेता है
फिर रोज़-रोज़ बढ़ती ही जाती हैं उसकी मुश्किलें
उन्हीं सबके बीच वह हंसता-गाता है, लड़ता-झगड़ता है
और होता ही रहता है इस दुनिया से असहमत

कभी-कभी बीच में दखल देकर वह कह देता है
कि आदमी का जीवन ऐसा नहीं बल्कि ऐसा होना चाहिए
नहीं तो आदमी ज़िन्दा रहते हुए भी मर जाता है

यह कहते ही वह घिर जाता है चारों तरफ़ से
घिरे हुए आदमी की फिर कभी कम नहीं होतीं मुसीबतें

आदमी के जीवन में रखा ही क्या है आख़िर
वह मरता तो है ही एक दिन
लेकिन दिक्क़त यहाँ से शुरू होती है कि उसे हमेशा
उस एक दिन से पहले ही मार दिया जाता है यह कह कर
कि आख़िर आदमी के जीवन में रखा ही क्या है—
                                    एक धायँ के अलावा ।