दिखाई दे न जो उसका हिसाब क्या रखता
अँधेरी रात में सूरज का ख़्वाब क्या रखता
हरेक बार की फूलों से जिसने गुस्ताखी
मैं उसके हाथ में दिल का गुलाब क्या रखता
वो मेरा दोस्त था हमदम था जाँनिसार भी था
मैं उसके सामने कोई हिजाब क्या रखता
किसी चिराग़ की लौ में न ख़ुद को पहचाना
सियाह रात में रुख पर नकाब क्या रखता
हरेक सिम्त की मजबूरियों के घेरे में
हवा के रुख पे ग़मों की किताब क्या रखता