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दिनान्त / महेन्द्र भटनागर

आज का भी दिन
हमेशा की तरह
चुपचाप बीत गया !
अनिच्छित असह
ब्राह्ममुहूर्त का कर्कश
अलार्म बजा,
दिनागम की खुशी में
एक पक्षी भी न चहका !

भोर
घर-घर बाँट आयी स्वर्ण !
मेरे बन्द द्वारों पर
किसी ने भी
न दस्तक दी
न धीरे से किसी ने भी
पुकारा नाम !

प्रौढ़ा दोपहर
प्रत्येक की दैनन्दिनी में
लिख गयी
विश्रान्ति के क्षण ;
मात्र मुझको
ऊब
केवल ऊब !

अलसाया शिथिल
अब देखता हूँ
आ रही सन्ध्या
अरुणिमा,
तुम भला क्या दे सकोगी ?
मौन उत्तर था —
‘अँधेरा....
घन अँधेरा !