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दिन-ब-दिन दूरी बढ़ा के सादगी से आदमी / हरि फ़ैज़ाबादी

दिन-ब-दिन दूरी बढ़ा के सादगी से आदमी
दूर होता जा रहा है आदमी से आदमी

जीना-मरना है ख़ुदा जब सिर्फ़ तेरे हाथ, तो
ख़ुद ही कैसे मर रहा है ख़ुदकुशी से आदमी

रंग पल-पल में बदलकर, कर रहा है ख़ुद ही साफ़
मिल रहा है गिरगिटों की ज़िंदगी से आदमी

कशमकश में है गरानी में भरे वो पेट घर का
या करे ख़ुश देवता को शुद्ध घी से आदमी

राज वो कर पाएगा कैसे शराफ़त से कि जब
ताज हासिल कर रहा है सरकशी से आदमी

जानता है ये तरीक़ा सिर्फ़ धोखा है मगर
दूर करता है ग़मों को मयक़शी से आदमी

क़ैद शीशे के मकां में करके शायद ख़ौफ से
भेद जल का चाहता है जलपरी से आदमी