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दिन ग्रीषम के आए / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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धूप
चिनगियाँ फैंक रही है
मुडगेली पर बैठी
धरती
लाल-लाल कर आँखें
लगती ऐंठी-ऐंठी
नीचे पसरी
तपी भभूदर
आसमान अंगारे
धरते हैं सन्देश
अशुभ के
मौसम के हरकारे
अगनि जरे सूरज के-
मन की
मन कैसे पतियाए।
फटे घाँघरे छोटे-छोटे
अध नंगी सी झीलें
नंगी पीठ पहाड़ी झेले
तपी धूप की कीलें
पाँव पटकती पड़ी रेत पर
नदिया माँगे पानी
हरियाली के चीर हरण की
डगर-डगर मनमानी
आँख मूँद
सिर थाम देखते
बट दादा पियराए।

झुलसे पात
टहनियाँ सूखी
तन सेंहुड़ के काँटे
उस पर
शातिर लुयें गाल पर
जड़ जाती हैं चाँटे
उठी आँधियाँ
काली-पीली
उखड़े रूख पुराने
आज यहाँ हैं
कल क्या होगा
कौन हक़ीक़त जाने
आओ तनिक
पास तो बैठो!
मन
कुछ तो सियराए।