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दिन ढ़लते ही / परितोष कुमार 'पीयूष'

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दिन ढ़लते ही
गहराती शाम को देख
दहल उठा था मन

आज पूरा दिन
रह गया था
मैं भूखा

बूढ़ी अम्मा को खिलाकर
बासी
सूखी रोटी
मैं पी लिया था
बस टूटे मटके का पानी

शाम का इंतज़ार
अब खत्म हो चुका था
कई दिन बाद
मजदूरी पर गये
बीमार पिता
पहुँच चुके थे लड़खड़ाते
चौखट तक

मटमैले थैले में
चावल, नई माचिस
और कुछ सामाने थीं
देख कर हम
और अम्मा
मन ही मन
काफी खुश थे

पिता की थकावट,
पसीने की बदबू
और आँखों की चमक
बता रही थी
रात की खिचड़ी का
प्रबंध हो चुका था

कल की चिंता ना थी
क्योंकि पिछवाड़े के
गुरुद्वारे में
कल लंगर का दिन था