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दिन प्रपंच के / कुमार रवींद्र

दिन प्रपंच के
कैसे, मितवा, पुण्य फले
 
दुखी देवता-
अनहोनी होते
निशि-दिन हैं देख रहे
पतितपावनी थी जो पहले
उसमें अब तो ज़हर बहे
 
बुरे हुए दिन
जो थे पहले रहे भले
 
हमने पूजी तुलसी मइया-
वह भी सूख रही
व्यापीं हमको हैं विपदाएँ
किसिम-किसिम की
नई-नई
 
नाग विषैले
घर-आँगन में,सुनो, पले
 
धूप-दीप सब बुझे
अज़ानें भी विपरीत हुईं
बहीं हवाएँ बस्ती में
साँपों की जीभ-छुई
 
आँधी-पानी आये
बिखरे नीड़- पुराने नीम-तले