Last modified on 11 अक्टूबर 2017, at 13:59

दिलकशी ए हुबाब क्यूँ देखूँ / सुभाष पाठक 'ज़िया'

दिलकशी ए हुबाब क्यूँ देखूँ
ये घड़ी भर का ख़्वाब क्यूँ देखूँ

ज़िन्दगी तजरुबों से कटती है
फलसफ़ों की किताब क्यूँ देखूँ

है सज़ा उम्र क़ैद की मुझको
रातदिन का हिसाब क्यूँ देखूँ

मेरे हाथों में आ नहीं सकता
रातभर माहताब क्यूँ देखूँ

ख़ार ख़ुशबू हैं और भी बातें
क्या बताऊँ गुलाब क्यूँ देखूँ

प्यास तो ये बुझा नहीं सकता
फिर समन्दर का आब क्यूँ देखूँ

ख़ूबसूरत है हर नज़ारा 'ज़िया'
कर के नज़रें ख़राब क्यूँ देखूँ