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दिल्ली : गली मुहल्ले की वे औरतें : 1275 / अनामिका

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नाज़िर मियाँ की गरम पावरोटी से पूछना —
कैसे उठता है ख़मीर उजबुजाता हुआ
खुसरो के मन में
          जब वे कहते हैं अनमेलिए !

एक पुरुख और लाखों नार,
जले पुरुख देखे संसार,
ख़ूब जले और हो जाए राख,
इन तिरियों की होवे साख !
हंसती थीं पनिहारिनें :
”ये तो बुझ गई — ईंटों की भट्ठी,
और कुछ सुना दो !
पानी तो तभी मिलेगा जब हम हारेंगी ।
सूख रहा है गला ? कोई बात नहीं !
थोड़ा-सा और खेल लो !
खीर की बात कहो,
नहीं-नहीं चरखे की,
ढोलकी की, नहीं कुत्ते की !
वो तो पहेली थी, थोड़े अनमेलिए कहो ।
औरत का मान नहीं रखोगे ?
पद्मिनी का मान रखा,
देवलरानी पर मसनवी लिखी,
पनिहारनों की भी बात रखो !“

"अच्छा सुनो —
खीर पकाई जतन से, चरखा दिया जलाय,
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय !
ला, पानी पिला !"
”अच्छा लो, पानी ...
पिए बिना ही चल दिए —
पद्मिनी का नाम क्योंकर लिया !“

अब बुदबुदाते चले शून्य में खुसरो,
”वो पद्मिनी और उसका भरोसा !
मान नहीं रख पाया उसका
वो पद्मिनी और उसका भरोसा ।
उसका भरोसा जो उससे भी सुन्दर था ...
आप आए हैं तो जाऊँगी ।

खिलजी दर्पण में चेहरा देखकर लौट जाएगा ।
मोड़ लेगा घोड़े वो हिनहिनाते हुए मन के !
युद्ध में हारे-थके ज़िद्दी लुटेरे
औरत की गोद में शरण चाहते हैं
जैसे पहाड़ की तराई या लहरों में,
पर उनको याद नहीं आता —
कि स्त्री चेतन है
उसके भीतर तैर पाने की योग्यता,
उसकी तराइयों-ऊँचाइयों में
रमण करने की योग्यता
हासिल करनी होती है धीरज से, श्रम से संयम से !’

उसने यह कहा और चली गई
निश्चिन्तता के सनातन महादुर्ग में
सिंहद्वार जिसका भरोसा ...
पर खिलजी का वादा
ताश का किला निकला ।
टूट गया सब्र, वायदा टूट गया,
टूट गया हर भरोसा ...
धूँ-धूँ जली रानी,
मैं हुआ पानी-पानी !

तब से अब तक
राख ही तो बटोरता फिरता हूँ
          इधर-उधर
जैसे ख़ुद अपनी ख़ुदी को !
ख़ुद को ख़ुद ही बटोरता हूँ,
झोली में भरता हूँ ख़ुद को,
कन्धे पर रखता हूँ, चल देता हूँ,
ज़िन्दगी बढ़ ही रही है खरामा-खरामा !

हर देहली है चटाई,
हसरत है हवा की मिठाई,
गिरकर सम्भल लेता हूँ,
ज़िन्दगी बढ़ ही रही है खरामा-खरामा !

पद्मिनी की राख उड़-उड़कर
पूछती है मुझसे — ‘कैसे हो ?’
कैसा हूँ ? क्या जाने कैसा हूँ !
वादाख़िलाफ़ी और मैं ? हाँ, मैं ही ।
ज़िम्मा तो मैंने लिया था ।
कैफ़ियत मुझको ही देनी थी —
रूप और कब्ज़ा ?

क्या कब्ज़े की चीज़ है चाँदनी !
गठरी में बन्धती है धूप क्या कभी और ख़ुशबू ?
ये कैसी सनक थी तुम्हारी,
ये कैसे बादशाहत ?
ख़ुद को जो जीत सका, बादशाह तो वो ही,
जिसको न कुछ चाहिए, बादशाह वही !

औलिया से पूछो —
क्या होती है बादशाहत !
औलिया कुतुबनुमा हैं —
जो जहाजी रास्ते भूले —
भर आँख कुतुबनुमा देखे —
कुतुबनुमा — बूझो-बुझो —

बूझो पनिहारनों, बूझो —
‘एक परिन्दा बेपाँव फिरे
सीने बीच बरछी धरे
जो कोई उससे पूछने जाए,
सबको सबकी राह दिखाए —’

पर औलिया के हुज़ूर में
प्रश्न ही हेरा जाते हैं —
जैसे हेराए थे
पद्मिनी की नाक के मोती !
उफ, पद्मिनी !
प्रेम ? हाँ, प्रेम ही था वह’

पर उसमें कब्ज़े की आहट नहीं थी —
उसको भरोसा था निस्सीमता पर
जैसे कि रानी को मुझ पर,
वो मेरी शायरी से वाकिफ़ थी
और इस वाकफ़ियत के आसरे
उसने मुझसे पर्दा करने की ज़रूरत नहीं समझी ।

मैं बुतपरस्त हो गया, पर उसी दिन —
इश्क़ का काफ़िर !
प्रेम का रस पीकर
इस देह की नस-नस
हो गई धागा
काफ़िरों के ही जनेऊ का !

शायरी ने बहुत दिया —
सात बादशाहों की सोहबत,
और शाहों के शाह, औलिया का निज़ाम,
लूट-पाट, मार-काट की कचरापट्टी में
ऊँचा अमन का मचान
          बेफ़िक्र हँसता हुआ -—
हवा से हवा को,
पानी से पानी को कैसे अलगाए कोई,
जाना ही होगा, निज़ाम पिया !
आई अभी आई !
‘बहोत रही, बाबुल घर दुल्हन !
चले ही बनेगी, हीत कहा है,
          नैनन नीर बहाई !’