भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिल का कमरा / ऋचा दीपक कर्पे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रंग, रोशनी और महक से भरा
मेरे दिल का एक कमरा,
जिसमें गुज़रती थी
मेरी शामें सुहानी

जहाँ सूरज की पहली किरण
छू जाती थी मेरे गालों को...
वह बंद पड़ा था बरसों से।
डर, दर्द और घुटन का
एक ताला लगा था उस पर।
आज खोल दिया उसे मैंने
उम्मीदों की चाबियों से...

झाड दिया,
कडवी यादों की धूल को,
जो तस्वीरों पर जमी थी।
झटक दिया...
निराशा के जालों को,
जो दरों दीवारों पर लटके थे।

अंधेरे को दूर करने के लिये,
जला दिये अनगिनत दीप।
दीवार पर लगे दर्पण में
मैने निहारा खुद को फिर से!
और श्रृंगारदान में,
मखमल की एक डिबिया में
सहेज कर रखी
सुर्ख लाल शर्म को,
सजा लिया फिर अपने गालों पर...

सूरमेदानी में रखी चमक
फिर से लगा ली आँखों में...
हजार सपनों से जडी
सतरंगी चूनर ओढ ली फिर से।
खनकती हुई मेरी हँसी,
सजा ली अपने होठों पर...

तख़्त के पास रखे सितार का
छेड दिया हर एक तार!
और तभी,
झरोखे से आई एक ठंडी बयार ...
वह खेल गई मेरे बालों से
मानो पूछ रही हो,
"कहाँ थी अब तक?"

मैंने खोल दी थी,
वह खिडकी तब तक...
जिसके बाहर लगे
चंपा के पेड पर बैठी मैना
मुझसे बतियाती थी।
वो आज भी वहीं है!
मुझे देख मुसकाई, चहचहाई...
पूछ बैठी, "मेरी याद नहीं आई?"

वहीं ऊपर आसमान में
मेरा साथी चाँद रहता था।
झाँक रहा था मेरे कमरे में
बोला, "आखिर लौट आई?"
"आना ही पड़ा" कह कर ली
मैने एक प्यारी-सी अंगडाई...

मेरा कमरा आज भी वैसा ही है।
और शायद...नही नहीं यक़ीनन...
वैसी ही हूँ मैं भी।