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दिल का खोज न पाया हरगिज़ देखा खोल जो क़ब्रों को / शाकिर 'नाजी'

दिल का खोज न पाया हरगिज़ देखा खोल जो क़ब्रों को
जीते जी ढूँडे सो पावे ख़बर करो बे-ख़बरों को

तोशक बाला पोश रज़ाई है भूले मजनूँ बरसों तक
जब दिखलावे ज़ुल्फ़ सजन की बन में आवते अब्रों को

काफिर नफ़स हर एक का तरसा ज़र कूँ पाया बख़्तों सीं
आतिश की पूजा में गुज़री उम्र तमाम उन गब्रों को

मर्द जो आजिज़ हो तन मन सीं कहे ख़ुश-आमद बावर कर
मोहताजी का ख़ासा है रूबाह करे है बबरों को

वादा चूक फिर आया ‘नाजी’ दर्स की ख़ातिर फड़के मत
छूट गले तेरे ऐ ज़ालिम सब्र कहाँ बे-सब्रों को