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दिल वालों की दिल्ली / हरिओम राजोरिया

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बोलना था उन्हें
पर बोले नहीं
बोलने को बहुत बड़े बक्काड हैं
राजधानी पर नहीं बोले तो नहीं बोले
घर जल गए, जलते घर छोड़
जान बचाकर भाग गए लोग
पर राजधानी के इस अकेलेपन पर
नहीं बोले तो नहीं ही बोले

भीतर ही भीतर अकेले से हो गए
जैसा सोचा, सपना देखा
वैसा तो दिल्ली में कुछ हुआ नहीं
दंगा भी हुआ तो क्या दंगा हुआ ?
मुठ्ठी भर लोगों की ही जान ले पाया
देश के दामन पर इतना छोटा धब्बा ??

इस बढ़ती उम्र में
कसमसाकर रह गए विकास कुमार
बोलने को शब्द कम पड़ गए
जैसा सोचा वैसा तो न हुआ
नंगे भी हो गए
नंगा नाच फिर भी न हुआ
नव दंगाइयों ने बोलने लायक नहीं छोड़ा
जन की जन सजकता और समझ ने
कुमार साहिब को भीतर से तोड़ा

क्या बोलें ?
किस मुँह से बोलें ?
आज सब कुछ साधन होते हुए भी ?
दिल्ली ने मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा
ट्वीट करते हुए भी हाथ काँपते हैं
क्या करें ? कहाँ जाएँ ?
सोशल मीडिया को ही छोड़ दें क्या ?
बदलते जा रहे समय को भाँपते हैं
दाँत मिसमिसाते हैं गुस्से से काँपते हैं

जितनी मरने की ख़बरें हैं
उससे ज़्यादा लोगों ने लोगों को बचाया
सदभाव और सहकार के रास्ते में
धर्म आड़े नहीं आया
मात्र सेंकड़ों की संख्या में ही घर जले
ऐसे दंगे - फ़साद का क्या हासिल ?
जबकि दिल पसीजने की गुँजाइश
और आदमी के भीतर मनुष्यता बची रहे

नव दंगाइयों को दंगे का तमीज नहीं
न अनुभव न किसी रहस्य का ज्ञान
कि जानवर हुए बगैर संसार में
किसी भी तरह का दंगा सम्भव नहीं
सब कुछ दाँव पर लग जाता है
बदले में बहुत थोड़ा हिस्से में आता है
ढाँचा नहीं था एक शहर था दिल्ली
तोड़ना तो खूब चाहा
पर ठीक से टूट नहीं पाया

विकास पुरुष की असफलता को
विकास कुमार ही समझ सकते हैं
दिल्ली का क्या है दिल्ली ही है
घाव तो कुछ गहरे लगे हैं
पर धीरे - धीरे भर जाएँगे
दिल्ली फिर से जी उठेगी
दिल वालों की है दिल्ली
दिल वालों की ही रहेगी ।