Last modified on 1 अगस्त 2011, at 22:25

दिवंगत चाचा के प्रति-2 / राजूरंजन प्रसाद

सघन बड़ी मूंछों को
चीरती निकलती तुम्हारी हंसी
फैल जाती थी
पूरे घर की हवा में
काट डालती निज का सन्नाटा
जैसे क्षितिज पर निकलता
लाल गोल सूरज
फैलाकर समस्त प्रकाश
पाट देता है
संपूर्ण पृथ्वी की
पहाड़ों-घाटियों की अतल गहराइयों को।

तुम भी थे कितने अद्भुत
कहते रहे गांधी को
‘नेहरू का पालतू कुत्ता’
खुद पहना उसी का बाना
खादी की फटी धोती में
लिपटी तुम्हारी काया
बनी रही अजेय
अपनी ही दृढ़ता से
बीमार मौसम में।

दी तुमने गाली
सबसे ज्यादा मार्क्स को
और खुद को चिपका पाया
किम इल सुंग की जिल्दों में
उलझा रहा बेबस मन
खो गया उन्हीं अक्षरों में कहीं
हर पढ़े पन्ने में
छोड़ जाते थे अपने
दबंग दस्तखत के निशान।

समझ न पाया मैं
तुम्हारा राज़
कि क्यों तुम्हें
जींस पैंट के ऊपर
पहना हमारा कुरता
नहीं भाया कभी
कहो-कैसा-?
कैसा था तुम्हारा सौंदर्य-बोध ? ?

घर की एक-एक चीज़
जो थी तुम्हारी
धरी है सब की सब
अभी तक सुरक्षित
म्यूजियम में पड़ी तलवारों की तरह नहीं
एक जीवित मनुष्य की तरह
जो बात करती है अक्सर
तोड़ती है दूसरे कइयों के
अंदर का सन्नाटा।

जब-जब टिकती है मेरी नज़र
ज़ोरों की आवाज़ से फड़फड़ाता है
उसका सारा पन्ना
संजोकर रखा था जिसे मैंने
तुम्हारे जाने के बाद
मचलती है दुधमुंही बच्ची-सी
देने को सहारा
घर के कोने में पड़ी
निस्संग तुम्हारी लाठी

एक दिन अचानक
पकड़ूंगा उसे और
निकल जाऊंगा दूर
बहुत दूर…
पार उसके भी
बंद होते हैं जहां
तमाम हमारे रास्ते
पूरी दुनिया के तमाम रास्ते।

मिट्टी
पानी
और हाड़-मांस की
नहीं बनी थी तुम्हारी काया
दौड़ती थी खून की जगह
नसों में
तेज़ रफ़्तार की जिद
जीवन ज़िद था तुम्हारे लिए
इच्छाएं ज़िद थीं
प्यार भी ज़िद था
बिल्कुल ज़िद की तरह आई
तुम्हारी मृत्यु

हंसो
हंसो कि तुम्हारी संतानें
कहीं ज्यादा सख़्त हैं
सिखाया नहीं करना
‘तुच्छ जीवन’ के लिए
‘महान समझौते’
हाय! कहो
कि यह भी कोई ज़िद थी तुम्हारी ?
(3.11.96)