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दीपक जलता रहा रात भर / गोपाल सिंह नेपाली

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एक
 
दुख की घनी बनी अँधियारी
सुख के टिमटिम दूर सितारे
उठती रही पीर की बदली
मन के पंछी उड़-उड़ हारे
बची रही प्रिय आँखों से
मेरी कुटिया एक किनारे
मिलता रहा स्नेह-रस थोड़ा
दीपक जलता रहा रात भर

दो

दुनिया देखी भी अनदेखी
नगर न जाना, डगर न जानी
रंग न देखा, रूप न देखा
केवल बोली ही पहचानी
कोई भी तो साथ नहीं था
साथी था आँखों का पानी
सूनी डगर, सितारे टिमटिम
पंथी चलता रहा रात भर

तीन

अगणित तारों के प्रकाश में
मैं अपने पथ पर चलता था
मैंने देखा, गगन-गली में
चाँद सितारों को छलता था
आँधी में, तूफ़ानों में भी
प्राण-दीप मेरा जलता था
कोई छली खेल में मेरी
दिशा बदलता रहा रात भर

चार

मेरे प्राण मिलन के भूखे
ये आँखें दर्शन की प्यासी
चलती रहीं घटाएँ काली
अम्बर में प्रिय की छाया-सी
श्याम गगन से नयन जुड़ाए
जाग रहा अन्तर का वासी
काले मेघों के टुकड़ों से
चाँद निकलता रहा रात भर

पाँच

छिपने नहीं दिया फूलों को
फूलों के उड़ते सुवास ने
रहने नहीं दिया अनजाना
शशि को शशि के मंद हास ने
भरमाया जीवन को दर-दर
जीवन की ही मधुर आस ने
मुझको मेरी आँखों का ही
सपना छलता रहा रात भर

छह

होती रही रात भर चुपके
आँख-मिचौनी शशि-बादल में
लुटके-छिपते रहे सितारे
अम्बर के उड़ते आँचल में
बनती-मिटती रहीं लहरियाँ
जीवन की यमुना के जल में
मेरे मधुर मिलन का क्षण भी
पल-पल ढलता रहा रात भर

सात

सूरज को प्राची में उठकर
पश्चिम ओर चला जाना है
रजनी को हर रोज़ रात भर
तारक-दीप जला जाना है
फूलों को धूलों में मिलकर
जग को दिल बहला जाना है
एक फूँक के लिए, प्राण का
दीप मचलता रहा रात भर