Last modified on 8 मई 2011, at 22:08

दुनिया के सारे कुएँ / नरेश अग्रवाल

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:08, 8 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मँडरा रहा है यह सूरज
अपना प्रबल प्रकाश लिए
मेरे घर के चारों ओर

उसके प्रवेश के लिए
काफ़ी है एक छोटा-सा सूराख़ ही

और ज़िन्दगी में
जो भी अर्जित किया है मैंने
उसे बाहर निकाल देने के लिए
काफ़ी होगा एक सूराख़ ही

और प्रशंसनीय है यह तालाब
मिट्टी में बने हज़ार छिद्रों के बावजूद
बचाए रखता है अपनी अस्मिता

और
वंदनीय हो तुम
दुनिया के सारे कुओ !
पाताल से भी खींचकर सारा जल
बुझा देते हो प्यास हर प्राणी की ।