Last modified on 27 जुलाई 2016, at 09:36

दुनिया से लेते समय / नरेन्द्र पुण्डरीक

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:36, 27 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र पुण्डरीक |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हमने प्रार्थना की
कि हम निरोग रहेें
हमने प्रार्थना की
कि हमारा वंश गोेत्र
बढ़ता रहे धरती पर
और हम सुखी रहें,

हमने कभी धरती के लिए
प्रार्थना नहीं की कि
धरती बनी रहे हरी-भरी
न प्रार्थना की कि
नदियों में बना रहे जल,

पक्षियों के लिए भी हमने
प्रार्थना नहीं की कि
वे बने रहें हमेशा धरती पर
गुँजाते रहें अपनी बोली-बानी का गीत-संगीत

हमेशा हमें अपनी आयु बढ़ने
और धरती पर
बने रहनें की चिन्ता रही
सो हमने चीज़ें जुटाने की चिन्ता में
हमने जीवन की चिन्ता नहीं की कि
चीज़ों से कितना
दबता जा रहा है उसका गला,

इसी तरह हमने अपनी
ज़िन्दगी सँवारने की चिन्ता में
हमने कभी सोचा नहीं कि
हमारे विचार कितने मर चुके हैं
अपने सपनों की ही चिन्ता करते हुए
हमने शब्दों में विश्वास के बने रहने की
चिन्ता नहीं की कि
उनमें भी वह बना रहे
ताकि आवाज़ लगाने पर
वे आ खडे़ हों,

समय से अपने लिए
कभी लेते हुए समय
हमनें पीछे मुड़ कर नहीं देखा कि
दूसरे भी खड़े हैं हमारे पीछेे,

न भन्ते का यह कहना सुना की
कि अकेले का सुख
जितना हल्का होता है
अकेले का दुख होता है
उतना ही भारी।