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दुश्मन / विजय गुप्त

अपने दुश्मन के बारे में
मैंने सोचा
बीस साल, पचीस साल
शायद तीस साल बाद तो
उसका चेहरा
भाप की तरह
आँखों में उड़ने लगा

हर चोट
उभर आई
ज़िस्म पर
तीर की तरह
वह आज भी
मेरे ख़याल में
धँसा
तीख़ी यातना में
छटपटाते हुए
मैंने फ़ोटो एल्बम देखा
वह दोस्तों और
रिश्तेदारों से भरा था

आज जब
दोस्तों ने मुझे
खाली पास बुक
और रिश्तेदारों ने
बाउंस चेक की तरह
फेंका
तो बाख़ुदा
वह शख़्स मुझको
बेतरह याद आया ।