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दूरियाँ हमसे बहुत लिपटी / सोम ठाकुर

दूरियाँ हम से बहुत लिपटी
एक अलबेला नमन होकर
खुशबुओं से -से हम सदा भटके
दो गुलाबों की छुअन होकर

एक आँचल हाथ को छूकर
गुम गया इन बंद गलियों में
मंतरा जैसा पढ़ गया कोई
चितवनी गीतांजलियों में
पर्वतों के पाँव उग आए
दीन -दुनिया का चलन होकर

याद कर लेगा अकेलापन
उम्र से कुछ भूल हो जाना
कसमसाहट की नदी बहना
बिजलियों का फूल हो जाना
रात अगली रात से बोली
सेज की सूनी शिकन होकर

रख रही है जो मुझे जिंदा
आप ये कमज़ोरियाँ सहिये
नाम चाहे जो मुझे दे दें
देवता हर बार मत कहिये
गीत है इंसान की पूजा
क्या करेंगे हम भजन होकर

यह बड़ी नमकीन मिट्टी है
व्यर्थ है मीठी किरण बोना
सीख लेना सोम से अपने
शहर में ही अजनबी होना
वह समय की प्यास तक पहुँचा
बस अमृत का आचमन होकर