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दूरी / किरण मल्होत्रा

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एक ऊँचे देवदार ने
मुझे बुलाया
मेरे स्वागत में
बडी- बडी बाहों को
खूब हिलाया

चाह कर भी
मैं
उससे मिल न पाई
बातें कुछ जो
कहनी थी कभी
कह न पाई

दोंनो के बीच
ऊँचाई आ गई
अपने अपने मन की
मन में रह गई

ऊँचे पहाडों पर बैठ
तुम देवदार
होते चले गए
और ऊँचे
समय की गर्दिशों से
होती चली गई
मैं और गहरी

अंततः फिर वही
बीच की दूरी
वहीं रह गई
ऊँचाई और गहराई
एक-दूजे की
पूरक बन
मौन-सी रह गईं