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दूर्वांचल / अज्ञेय

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पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में
डगर चढ़ती उमंगों-सी।
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।
विहग-शिशु मौन नीड़ों में।

मैं ने आँख भर देखा।
दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा।
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)
क्षितिज ने पलक-सी खोली,

तमक कर दामिनी बोली-
'अरे यायावर! रहेगा याद?'

माफ्लङ् (शिलङ्), 22 सितम्बर, 1947