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दूर जाते हुए / कविता भट्ट

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दूर जाते हुए मन सीपी सा
          यादों के समंदर में खोया था
जिसके सीने को मैंने कई बार
          अपने आंसुओं से भिगोया था

खोज रही थी आने वाले
       हर चेहरे में उसका निश्छल चेहरा
भोली आँखें- जिनकी नमी
          वो ज़माने से छिपाता ही रहा

बस इसलिए कि कहीं
      मेरी आँखे फिर से बरसने न लगें
दोनों का दर्द एक सा है,
         कहीं दुनिया समझने न लगे
 
झूठे-बनावटी संबंधो के
         महलों की नींव न हिल जाये
तथाकथित सभ्यता-नैतिकता
           कहीं धूल में न मिल जाये

रिश्तों के महल बस बाहर से ही
             सुन्दर होते हैं दिखने में
उम्र गुजरी बेशकीमती संबंधों-
          रिवाजों के सामान रखने में
    
इन सामानों की झाड़-पोंछ में
             कितने ही निश्छल प्रेमी
खो देते हैं अपनी बात
       कहने का हुनर, आँखों की नमी

बन जाते हैं मात्र मशीन-
      संबंधों के लिए नोट छापने वाली
एक ही छत तले रहते रोबोट;
       आकृति- मानव सी दिखने वाली

नम आँखों वाला वो सख्श
          क्या फिर से लौटकर आयेगा?
मेरे कंधे पर अपनी हथेली से
            हमदर्दी का हस्ताक्षर करेगा?

मुझे गले लगाकर; क्या सच्ची बात
              कहने का हुनर दोहराएगा?
जो सभ्यता में नहीं; क्या वह
           उस सम्बन्ध की धूल हटाएगा?

जो मिलकर नम होती हैं बरस सकेंगी
             वो आँखें क्या दूर जाते हुए ?
या समेटे रखेंगी ज्वार-भाटा
       सभ्यता-नैतिकता का घुटते-घुटाते हुए ?