भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूर यहाँ तस्वीर यही बस दिल में रोज़ निकलती है / गौतम राजरिशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर यहाँ तस्वीर यही बस दिल में रोज़ निकलती है
तुम कुछ गुमसुम-सी बैठी हो और उदासी ढ़लती है

इक तन्हा तकिये पर आँखें मलता है एक सवेरा
मीलों दूर कहीं छत पर इक सूनी शाम टहलती है

दिन भर ड्यूटी पर सहमी रहती है, लेकिन शाम ढ़ले
फोन की इक घंटी पर धड़कन सौ-सौ बाँस उछलती है

एक तपिश-सी देती है जाने क्यों आख़िर सर्द हवा
बारिश भी मानो बिन तेरे तपती और उबलती है

काटे न कटे दिन के लम्हे, रातें सदियों-सी लम्बी
उम्र गुज़रती जाये है, साँसों की डोर फिसलती है

बर्फ़ की चादर ओढ़े परबत कब से हैं चुपचाप खड़े
याद तुम्हारी अकसर इन पर बन कर धूप पिघलती है

सात समंदर पार इधर इस अनजानी-सी धरती पर
तेरे ज़िक्र से मेरी ग़ज़ल थोड़ी-सी और मचलती है