भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूर से लगता है पर्बत पर ख़त-ए-बारीक हूँ / ओम प्रकाश नदीम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:57, 27 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओम प्रकाश नदीम |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर से लगता है पर्बत पर ख़त-ए-बारीक हूँ
पास आ कर देखिए पत्थर की मोटी लीक हूँ

मत सजाओ बेशक़ीमत संग-ए-मरमर से मुझे
मैं फ़क़त बुनियाद हूँ बे रंग-ओ-रौनक़ ठीक हूँ

कल सभी के पास था तो आप से मैं दूर था
अब सभी से दूर हूँ बस आपके नज़्दीक हूँ

इसको पाने की तमन्ना उसको पाने की ललक
मैं ब ज़ात-ए-ख़ुद ही ख़ुद पर ज़ुल्म की तहरीक हूँ

कल थे मेरे दोस्त लेकिन आज अह्ल-ए-ज़र हैं वो
आज मैं उनकी नज़र में बाइस-ए-तज़्हीक हूँ

वो भी रस्मन पूछ लेते हैं मज़े में हो 'नदीम '
मैं भी इख़लाक़न ये कह देता हूँ - जी हाँ ठीक हूँ