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दूसरा आदमी / नरेश चंद्रकर

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पढ़ते हुए क़ि‍ताब खुली छोड़ कर जाता हूँ
बाँच लेता है कोई

पेरू खाते हुए जाता हूँ
ज़रा-सा उठकर
दाँत गड़ा देता है कोई

बातें करते हुए बच्‍चों से
बराबर लगता है
कोई सुन रहा है बगल में बैठे पूरी देर

प्रत्‍येक दृश्‍य में अदृश्य है कोई

रौशनी के हर घेरे में छि‍पा है अँधेरा
काग़ज़ में पेड़ है
काले में छि‍‍पा है सफ़ेद
सुर में बैठी है बेसुरी तान
वस्‍तुओं में क़ीमतें हैं
लकड़ी में दीमकें
अनाज में घुन है

कहे में रह जाता है
हमेशा ही अनकहा
शब्‍दों में छि‍पे हैं मौन

बसे हुए शहर में अदृश्‍य है नदि‍याँ
आइने में हैं दूसरा भी अक्‍स

रहता हूँ जि‍स गली, मकान में
वहाँ रह चुका पहले भी कोई

चाय के प्‍याले से चुस्‍कि‍याँ लेते हुए जानता हूँ
झूठा है कप
नहीं मानता फि‍र भी
नहीं यक़ीन करता फिर भी
नहीं स्वीकारता फिर भी

हर सिम्त में है
हर वस्तु में हैं
हर मोड़ पर है

दूसरा आदमी !!