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दूसरा दर्ज़ा / हेमन्त शेष

दोपहर का वक़्त था वह
पर ठीक दोपहर जैसा नहीं,
नदी जैसी कोई चीज़ भागती हुई खिड़की से बाहर
सूख रही थी
पुलों और पटरियों के शोर को उलाँघता
किसी तंद्रा में कहीं जा रहा था मैं
बाहर
खेतों से उलझ रही थीं झाडियाँ
झाड़ियों से बेलें बेलों पर तितलियाँ तितलियों पर रंग
उन्हें ठहर कर देखने की हम में से भला
किसको फ़ुरसत थी
दृश्य जैसा हू-ब-हू
वह एक दृश्य था: किसी घाव की तरह ताज़ा और दयनीय
कछार का छू कर आ रही हवा में थे कुछ
जड़े हुए पहाड़
जिन पर छाई पीली घास
ऐसी दिखती थी जैसे कछुए की पीठ को
किसी ने रेती से घिस दिया हो

लाखों बरस पहले
चिड़ियों को पंख दिए गए थे
वे लोहे के अजगर की रफ़्तार से अभिभूत
एक साथ लहराती हुई उड़ रहीं थीं

किसी अप्रिय ज़िम्मेदारी के निर्वाह में
लोगों ने अपने घर छोड़े होंगे अक्सर इतिहास में इसी तरह
अकेला कइयों के साथ मैं कहीं चला जाता था

वे क्यों चल रहे थे मेरे साथ
इस अन्तहीन समय में
आख़िर किस भरोसे पर

मैं किससे पूछता भी तो आख़िर किस से
ऊँघते और एक-दूसरे पर गिरते हुए भी वे प्रायः
निर्दोष लग रहे थे
डिब्बे के साथ-साथ अकेले लोग
हालाँकि थे वे एक दूसरे से बेतरह ऊबते