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दूसरी जिन्दगी में / रसक मलिक / नीता पोरवाल

दूसरी ज़िन्दगी में,
मैं अपने बच्चों की उदासी के
चिरकालिक प्रमाद से गुज़रे बिना,
प्रार्थना की चटाई की तरह मुड़े-तुड़े शरीर वाले अपने बच्चों को
घर लौटते देखने की रस्म का अनुभव किए बिना,
उन्हें पैतृक नगर के बारे में कहानियाँ सुनाकर अपनी रातें गुजारे बिना
जहाँ के निवासी एक छत की तलाश करते-करते एलियंस बन जाते हैं,
एक पिता बनना चाहता हूँ

मैं चाहता हूँ
मेरे बच्चे मेरे घर के बाहर चटाई बिछाएँ
और राइफल से चिरीं घरों की दीवारों के बिना खेलें।
मैं अपने बच्चों को भगवान की प्रार्थना की तरह
अपनी मातृभूमि का नाम लेते हुए देखना चाहता हूँ,
झाड़ियों में जानवरों की तरह शिकार हुए बिना,
भीड़ के द्वारा मौत के घाट उतारे बिना
गलियों में उछलकूद करते हुए देखना चाहता हूँ

दूसरी ज़िन्दगी में
मैं चाहता हूँ कि मेरे बच्चे मैदान में झींगुर पालें,
कमरे में अपनी गुड़िया के साथ खेलें,
हवा के झोंके के साथ उड़ती फूलों की महक को अपनी साँसों में भरें
पक्षियों को उनके पंखों के साथ आकाश को मापते हुए देखें।