दूसरे की बात सुनि परत न ऎसी जहाँ ,
कोकिल कपोतन की धुनि सरसात है ।
छाइ रहे जहाँ द्रुम बेलिनि सोँ मिलि ,
मतिराम अलिकुलनि अँध्यारी अधिकात है ।
नखत से फूलि रहे फूलन के पुँज घन ,
कुँजन मे होत जहाँ दिनहूँ मे राति है ।
ता बन की बाट कोऊ सँग न सहेली कहि ,
कैसे तू अकेली दधि बेचन को जाति है ॥
मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।