भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दू मुक्तक / चन्देश्वर प्रसाद शर्मा 'परवाना'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:30, 7 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्देश्वर प्रसाद शर्मा 'परवाना' |...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जरत दियना त कबों बुतइबे करी।
सुरुज भोरे के साँझे लुकइबे करी।
जवन माई सुतवले रहसि ठोस के,
उहे माई नू हमके जगइबे करी॥
एह चन्दन एह छाया, एह माला से का।
मन रही साँच तब गोर-काला से का।
अपनापन सब मकं जब घरवा कहए लेई।
अपना धन के खजाना में ताला से का॥