भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दृग लाल बिसाल उनीँदे कछू गरबीले लजीले सुपेखहिँगे / शम्भु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दृग लाल बिसाल उनीँदे कछू गरबीले लजीले सुपेखहिँगे ।
कब धौँ सुथरी बिखरी अलकैँ झपकी पलकैँ अवरेखहिँगे ।
कवि शम्भु सुधारत भूषण वेस निहारि नयो जग लेखहिँगे ।
अँगरात उठी रति मँदिर ते कब भोरहिँ भामिनि देखहिँगे


शम्भु का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।