भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दृष्टि / आस्तीक वाजपेयी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:20, 6 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आस्तीक वाजपेयी |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या मैं अकेला हो गया ?
कहाँ गये सब लोग ?
उस पेड़ के पीछे से वह चिड़िया
क्या मुझे देख रही है ?

नहीं !
कोई किसी को नहीं देखता,
इन पेड़ों के ऊपर नहीं बैठे यक्ष ।
इस शताब्दी की देह में
छिप गया है अन्धकार ।
कुछ कुण्ठित नहीं,
हवा भी अन्धी है ।
हर ईंट लाल नहीं है,
है ना ?

वह किसी कुत्ते की भौंक है,
या किसी वज्र की गर्जन ?
मैंने देखा था अपनी कल्पना में छिपा,
स्मृति को पकड़े वह बादल जो एक क्षण में गुज़र गया ।
आँखों में आँसू, अन्तहीन दृष्टि,
रेगिस्तान के भीतर छिपे चीटों की
कल्पना से शापित ।

संजय बोलते हैं, ‘‘महाराज न विजय हुई,
न पराजय, न धर्म हुआ न अधर्म ।‘‘
ध्रतराष्ट्र देखते हैं रंग ।

रात के अन्धेरे में बारिश हो रही है ।
भूमि लाल हो गई है ।