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देखा तो कोई और था सोचा तो कोई और / इब्राहीम 'अश्क़'

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देखा तो कोई और था सोचा तो कोई और
अब आ के मिला और था चाह तो कोई और

उस शख्श के चेहरे में कई रंग छुपा था
चुप था तो कोई और था बोला तो कोई और

दो-चार क़दम पर हीं बदलते हुए देखा
ठहरा तो कोई और था गुज़रा तो कोई और

तुम जान के भी उस को न पहचान सकोगे
अनजाने में वो और है जाना तो कोई और

उलझन में हूँ खो दूँ के उसे पा लूँ करूँ क्या
खोने पे कुछ और है पाया तो कोई और

दुश्मन भी है हम-राज़ भी अंजान भी है वो
क्या 'अश्क' ने समझा उसे वो था तो कोई और