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देखें तो सही / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे

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प्रथम मेघ को देखकर
यक्ष को हुई थी अकुलाहट
पर आज
तुम्हारे सान्निध्य में मुझे क्यों हो रही है अकुलाहट ?

ओंठ में छटपटा रहे हैं शब्द ।

पेड़ के झरोखे में खड़े-खड़े
हवा
प्रतीक्षा कर रही है ।

बादल घिर आए हैं
अब हम बिछड़ जाएँ तो अच्छा ।

हिमगिरि से अलका की राह पर
देखेँ तो सही कि
हमारे पदचिन्ह हैं कि नहीं ?

मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे