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देख उस को ख़्वाब में जब आँख खुल / 'ताबाँ' अब्दुल हई

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देख उस को ख़्वाब में जब आँख खुल जाती है सुब्ह
क्या कहूँ मैं क्या क़यामत मुझ पे तब लाती है सुब्ह

जिस का गोरा रंग हो वो रात को खिलता है ख़ूब
रौशनाई शम्मा की फीकी नज़र आती है सुब्ह

पास तू सोता है चंचल पर गले लगता नहीं
मिन्नतें करते ही सारी रात हो जाती है सुब्ह

नींद से उठता है ‘ताबाँ’ जब मेरा ख़ुर्शीद-रू
देख उस के मुँह के तईं शरमा के छुप जाती है सुब्ह